Prestige and Honor : Your golden cage


PRESTIGE AND HONOR, YOUR GOLDEN CAGE
Honor reduces the freedom. Your fame, honor and virtue can limit your freedom.

Nobody expects a good person to make a mistake. So the better person you are, the higher the expectations people have of you. It is then that you lose your freedom. Your virtues and good actions are like a golden cage. You are trapped by your own good actions, for everyone expects more from a good person. Nobody expects anything from a bad person.

Most of the people are stuck in this cage of prestige and honor. They can not smile. They are constantly worried about keeping up their prestige and their honor. It becomes more important than their own life. Just being good or doing good to keep the prestige and honor is worthless. Prestige and honor can bring more misery in life than poverty.

Many desire fame, but little do they know that they are looking for a cage.

It is an art to be dignified, and yet not be suffocated by it. Only the wise would know this. For the wise one it is natural to be in honor, and he has no concerns even if it falls apart. Despite having fame or prestige, he will live as though he has none.

A wise person can handle any fame without feeling suffocated, for he is crazy too!

By doing good in the society one gains prestige, then enjoying the prestige and honor, one loses their freedom.

Question: Then how do you keep your freedom?

Answer: By being like a child, considering the world as a burden a joke or a dream.

Weekly Knowledge #0303
Panama City
03 May 2001
Panama
🌻Jai Guru Dev🌻

 Hindi translation

साप्ताहिक ज्ञानपत्र ३०३
३ मई, २००१
पनामा सिटी, पनामा

प्रतिष्ठा और सम्मान – तुम्हारा सुनहरा विजय

सम्मान स्वतंत्रता को कम करता है। तुम्हारी प्रसिद्धि सम्मान और सद्गुण तुंहरी स्वतंत्रता को सीमाबद्ध कर सकते है।
कोई भी एक अच्छे व्यक्ति से गलत करने की आशा नही रखता। इसलिए जितने तुम अच्छे होते हो लोगो की उतनी ही  तुमसे उच्चतर अपेक्षाएँ होती है। तब तुम अपनी स्वतंत्रता खो देते हो तुम्हारे सद्गुण और अच्छे कृत्य एक सुनहरे पिंजरे के समान हो जाते है। तुम स्वयं अपने अचे कृत्यों में फंस जाते हो क्योकि हर एक व्यक्ति एक अच्छे व्यक्ति  से अधिक अपेक्षा करता है। और एक खराब व्यक्ति से कोई भी कुछ आशा नही रखता।

अधिकतर लोग इस सम्मान और प्रतिष्ठा के पिंजरे में जकड़ जाते है। वे मुस्कुरा नही सकते। वे निरंतर अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान बनाए रखने के लिए चिंतित रहते है। अपने जीवन से भी अधिक उनके लिए इसका महत्व होता है। केवल प्रतिष्ठा और सम्मान बनाए रखने के लिए ही कुछ अच्छा करना व्यर्थ है। निर्धनता की अपेक्षा प्रतिष्ठा और सम्मान जीवन को अधिक दुखमय बना सकते है।
कुछ लोग प्रसिद्धि की आकांक्षा करते है परंतु वे यह बिल्कुल नही जानते कि वे एक पिंजरे को आमंत्रण दे रहे है।

बिना घुटन के सम्मानित रहना एक कला है। केवल ज्ञानी ही यह समझ सकते है। ज्ञानी का सम्मानित होने स्वाभाविक है, परंतु यदि नही भी होता तब भी उसे कोई परवाह नही होती । प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि होने पर भी वह ऐसे रहता है जैसे कि उसके पास कुछ भी न हो। एक ज्ञानी किसी भी प्रसिद्धि को बिना किसी घुटन के संभाल सकता है।
समाज मे अच्छा काम करने से व्यक्ति को सम्मान प्राप्त होता है, बाद में प्रतिष्ठा और सम्मान में जब उसे आनंद आने लगता है। तब उसकी स्वतंत्रता खत्म हो जाती है। 

प्रश्न- तब अपनी स्वतंत्रता कैसे बनाए रखेंगे?
श्री श्री- एक बच्चे के जैसे बनकर, इस संसार को एक स्वप्न, एक बोझ या एक चुटकुला मान कर।

🌻जय गुरुदेव🌻

शिव सूत्र ४ : तीन अवस्था


🌺🌷🍂🍂🍃🌷 ॐ 🌷🍃🍂🍂🌷🌺

         🌹 शिव सूत्र 🌹

      🌺 प्रथम खण्ड 🌺

     🍀 सूत्र ४ 🍀

      🍁'जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्यायोगसंभव: '🍁

अगले सूत्र में बताते है- जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्यायोगसंभव:

तीन अवस्था तो हम सब जानते ही हैं - जाग्रत अवस्था, स्वप्नावस्था और निद्रावस्था । इन तीनों अवस्थाओं के बीच में कुछ  क्षण ऐसे मिलते हैं, जहाँ हम न जाग रहे हैं न सो रहे हैं, न स्वप्न देख  रहे हैं, न नींद में है । क्षण भर के लिए ऐसी जो स्थिति होती है वह है तुरीय अवस्था । वही शिव अवस्था है । यदि उस स्थिति पर भी हम ध्यान देते हैं तो समाधि लगने लगती  है । चिन्तासे मुक्त होने लगते हैं । फिर वह बालपन जो स्वभावगत है, निखरने लगता है । शिव तत्व को खोजना हो तो उसे कहाँ खोजे  ? वह कैलाश पर्वत पर नहीं है । शिव तत्व को खोजना हो तो जाग्रत व स्वप्नावस्था के मध्य में खोजे । जब नींद से जग रहे हैं और पूरी तरह  से जागे भी नहीं, उस समय आँख बंद कर थोड़ी देर ध्यान में बैठो । तब मन विचारों से मुक्त होकर गहराई में उतरता है और उस चैतन्य आत्मा का अनुभव होने लगता है । वह चैतन्य ही आत्मा है यह चतुर्थावस्था का अनुभव इन तीनों के बीच-बीच में उपलब्ध होने लगता है । वह चैतन्यस्वरूप प्रकट होने लगता है । 


एक नवजात शिशुमें जो चैतन्य है, एक नन्हें मुन्ने बालक में जो जीवन्तता है प्राय: प्रौढ़ अथवा बहुत पढ़े- लिखे व्यक्तियों में  नज़र  नहीं आती है । जो आत्मा चैतन्यरूपी है, जो चैतन्यस्वरूप प्रकट होता है बच्चों में,  धीरे-धीरे बहुत पढ़-लिखे व्यक्तियों में गायब होने लगता है । इसका कारण क्या हैं ? क्या हम जीवन को सही मायने में जीते भी है या सिर्फ एक सूचना के यंत्र बन गये हैं ? सूचना इकट्ठा करके यंत्र बन जाने से या जीवन्तता के अभाव से जीवन प्रकट नहीं हो पाता । सब कुछ यांत्रिक हो जाती है । मुस्कान गायब हो जाता है । कहते हैं कि एक शिशु एक दिन में चार सौ बार मुस्कुराता है । एक युवा केवल सत्रह बार मुस्कुराता है । एक प्रौढ़ व्यक्ति मुस्कुराता ही नहीं और बड़े प्रोफेसर हो गये तो भूल ही जाओ, वे तो मुस्कुराते ही नहीं, वे समझते हैं बहुत बड़ा अपराध है मुस्कुराना । चेतना का क्या लक्षण है ? चेतना का लक्षण है उत्साह, प्रेम,आनंद, सृजनात्मकता । चाहे उपद्रव भी करो कोई हर्ज  नहीं, कुछ तो करते रहो वह चैतन्य का नटखटपन भी ठीक है वह चैतन्य का ही लक्षण है । जहाँ चेतना होती है वहाँ जड़ता नहीं होती । जड़ बन के बैठे रहें यह तो चेतना का अभाव है । ऐसी चेतना का प्रस्फुरण अथवा विकास जीवन में चाहिए । 


उद्यमो भैरव:


🌷🍂🍂🍃🌷 ॐ 🌷🍃🍂🍂🌷

         🌹 शिव सूत्र 🌹

      🌺 प्रथम खण्ड 🌺

     🍀 उद्यमो भैरव: 🍀

          🍁  सूत्र - ३ : 🍁


🌺पृष्ठ  ७

अगला सूत्र है - ' उद्यमो भैरव: ' - हमारा शरीर और मन अलग-अलग नियमों पर कार्य करते हैं । शरीर में जितनी ताकत लगायेंगे, व्यायाम करेंगे, उतना ही वह हृष्ट- पृष्ट होने लगेगा पर मन के लिये एक अलग ही ढंग है, जितना आप विश्राम करोगे उतना ही मन तीक्ष्ण होने लगेगा । ' उद्यमो भैरव: ' यह विलक्षण सूत्र है । जहाँ हम पुरुषार्थ नहीं करते, वहाँ पर न तो साधना सिद्ध होती है और न ही संसार में कोई कार्य सिध्द होता है । उसके लिए हमें पूरा प्रयत्न करना पड़ेगा ।
                        
 पूरा प्रयत्न करो । ऐसा नहीं कि भगवान की जब इच्छा होगी तब हो जायेगा । आपके मन में किसी बात की इच्छा उठी हो वो भगवान के द्वारा ही उठी है तो उसके लिए उद्यम करो । हम अक्सर क्या करते हैं ?  हम उद्यम से, प्रयत्न से बचने की चेष्टा करते हैं । कहा गया है- '  उद्योगिनं पुरुष: सिंह भुपैति लक्ष्मी ' जो उद्योगी है उन्हीं को भाग्य प्राप्त होता है । आलसी व्यक्ति को भाग्य प्राप्त नहीं होता है ।
  
   ' उद्यमो भैरव: ' अर्थात उद्यमी बनों । जैसे 'ईश्वर ' ने उंगलियां दी है परंतु इसका प्रयोग कैसे करना है यह उद्यम पर निर्भर है । सितार बजाना है तो कैसे बजायें ? उसके लिए एक विशेष प्रकार के अभ्यास की जरूरत है । कम्प्यूटर में टाइप करना हो तो उसके लिए भी अभ्यास की जरूरत है । आध्यात्मिक हो या पारमार्थिक कुछ भी कार्य करना हो तो हमें अपना प्रयत्न जारी रखना पड़ेगा।

जब हम अपनी पूरी चेष्टा करते हैं, ताकत लगा देते हैं, तो उसके बाद विश्राम के क्षणों में ही समाधि लगती है । आलसी व्यक्ति को कभी समाधि नहीं लग सकती । सेवा, साधना, सत्संग - तीनों ज़रूरी है । यदि हमारा ध्यान नहीं लगता है, मन शांत नहीं होता है तो इसकी वजह है रजोगुण की वृध्दि । रजोगुण को जब हम काम में नहीं लगाते  हैं तब रजोगुण चिंता के रूप में परिणित हो जाता है । उद्यम करो, प्रयत्न करो ।कार्यरत रहने से, काम करते रहने से रजोगुण शांत होने लगता है । जो करने का मन है उसे करके शांत हो जायें और जो नहीं करना है उसको छोड़कर शांत हो जायें । रजोगुण की प्रवृत्ति है कि उसमें पूरा उद्यम लगाने से  आदमी सत्वगुण में पहुँच जाता है । इसलिए ' उद्यमो भैरव: ' ऐसा कहा गया है । बैठ नहीं पाते हो , मस्ती में डूब नहीं पाते हो तो उद्यम करो । साधना, सेवा, सत्संग के द्वारा आप पुन: अपने स्वभाव में आ सकते हो । स्वात्मानंद प्रकाशवपुरो - हमारा अपना स्वभाव जो कि आनंदमय, ज्ञानमय, प्रकाशमय है उसमें टिकने में आसानी होगी ।

      इसलिए जो खाली बैठे रहते हैं, उन्हें ध्यान नहीं होता । जो उद्यमी हैं और ध्यान में बैठते है उन्हें अच्छी तरह समाधि लगने लगती है और वे शिव तत्व में प्रविष्ट होने लगते हैं ।

🍀🌸🌺🌻 जय गुरुदेव 🌻🌺🌸🍀

ज्ञानधिष्ठानं मातृका


🌹 शिव सूत्र 🌹

      🌺 प्रथम खण्ड 🌺

     🍀 ज्ञानधिष्ठानं मातृका 🍀

          🍁  सूत्र - २ : 🍁

          
अगला सूत्र है  ' ज्ञानधिष्ठानं मातृका '

     ' ज्ञान ' किसी भाषा के माध्यम से ही समझ में आता है ।  अनुभति को हम जब ज्ञान  के रूप में परिवर्तित करते हैं तो वह किसी न किसी भाषा के रूप में ही हो सकता है । कुछ शब्दों से पद बनता है, पद वाक्य बनता है ,वाक्य से  हमे ज्ञान होता है ।तो ज्ञान का मूल है  - अक्षर । अक्षर से पद, पद से वाक्य । जब कोई चिन्ता आपको सताती है तो वह चिन्ता किसी वाक्य या पद  के बिना हो ही नहीं सकती । किसी भाषा के बिना आप चिन्ता कर ही नहीं सकते । ऐसी स्थिति में कभी - कभी ज्ञान हमारे लिए  बन्धन का कारण बन जाता है । अनुभूति से रहित ज्ञान जीवन में बन्धन लेकर आता है , चिन्ता का कारण बन जाता है । इससे कैसे मुक्त हुआ जाये ? इस बन्धन से कैसे छुटकारा पाये ?
                     
'ज्ञानधिष्ठानं मातृत्व '  वाक्य को समझे बिना ज्ञान नही हो  सकता । कोई चिन्ता ना हो, किसी भी जानकारी के लिए भाषा की जरूरत होती है , शब्दों की  जरूरत होती है ।  उस वाक्य का भेदन करते हुए, वाक्य के भेद से  जो अक्षर  मिलता है उस अक्षर तक पहुँचे ।  वही मातृशक्ति है , वही दैवीय शक्ति है । उसकी सहायता से हम चिन्ता से मुक्त हो सकते है इसलिए  मन्त्र को भी कहा है  " मनना त्रयते इति मन्त्र:।जिसे बार- बार  मन में दोहराने से  चिन्ता रूपी भाषा या वाक्य से मुक्त हो जाये । यह एक उपाय हैै । चिन्ता किसी वाक्य से होती है तो उस वाक्य पर ही मन केन्द्रित   करो । उस चिन्ता को ही लेकर  बैठें । उस चिन्ता को तोड़ते जायें ।


जैसे ' बेटे को नौकरी नहीं मिल रही है ' यह एक चिन्ता है मन में , तो  उसी को लेकर बैठें  बे- टे- को- नौ-क-री  एेसे एक एक अक्षर देखते जाएँ । चिन्ता  बहुत तेजी से होती है मगर उसको धीरे धीरे  खण्डित करते जाते है तो मन उस वाक्य से शब्द से हट कर ध्यान में जाने लगता है । चिन्ताओं से मुक्ति मिलने लगती है ।  नहीं तो ध्यान के लिए कितनी बार बैठते हैं और चिन्ता को हटाने की चेष्टा करते हैं लेकिन वे हटती नहीं है । चिन्ता को लेकर उसके मूल मात्रा में चले जायें । उसके अर्थ और शब्दों का भेद करते चले जायें । तभी  ध्यान में  गति होने लगती है । फिर - ' शक्ति चक्र संघाने विश्व संंहार : ( शक्ति चक्र का संहरण करने से विश्व संहार होता है ) । शरीर में जो शक्ति केन्द्र है वहाँ पर ध्यान लगाते लगाते मस्त हो सकते हैं ।

चैतन्य आत्मा


🌷🍂🍂🍃🌷 ॐ 🌷🍃🍂🍂🌷

         🌹 शिव सूत्र 🌹

      🌺 प्रथम खण्ड 🌺

      🍀 चैतन्य आत्मा 🍀

       🍁  सूत्र - १ : 🍁

             अथः शिवसूत्र

अब हम शिवसूत्र देखते हैं

हम में  से प्रत्येक के जीवन में कुछ न कुछ शुभ जरूर घटा हैं,लेकिन मन का स्वभाव है कि हम शुभ को छोड़ देते हैैं एवं नकारात्मक घटना हैै, उसी को पकड़ कर बैठ जाते हैं। दस अच्छी अच्छी बातें आपको सुनाये और मात्र एक गाली दें तो आप किसे पकड़ कर बैठते हो?
     
    चित्त का स्वभाव हो गया है कि हम नकारात्मकता को पकड़ कर बैठते हैं । यदि हमें इस स्वभाव से मुक्ति चाहिए तो ' शिवसू्त्र ' को समझना होगा । जीवन में शुभ को पकड़ आगे कर चलें । वस्तुत: सत्य जो शिव है, जो शुभ है और जो सुंदर भी है, उसके जरिए संसार सागर से पार होने की एक विधि है  शिवसूत्र ।

सबसे पहला सूत्र है :- 
भगवान शंकर कहते हैै-   चैैतन्य आत्मा , कि तुम चैतन्य आत्मा को खोजना चाहते हो लेकिन आत्मा  कहीं दूर कोई  वस्तु नहीं हैै । इस सृष्टि में , जिससे सब कुछ बना हैै या पूरी सृष्टि ही जिससे बनी हैै, वह चैतन्य आत्मा ही है । हमे अपना अनुभव भी उस  चैतन्य के द्वारा  ही होता है । चैतन्य ही वो  शक्ति हैै जिससे हम  स्वयं को जान पाये, स्वयं को जानने की शक्ति केवल चैतन्य में ही है । जहाँ चैतन्य की वृध्दि होती हैै वहाँ होश भी बढ़ जाता हैै लेकिन अन्तर इतना हैै कि जागृत व्यक्ति जानता हैै और सोया हुआ व्यक्ति  उसे जान नहीं पाता ।
                
सबसे पहला सूत्र हैै - चैैतन्य आत्मा । इस प्रकृति में देखोगे तो कण कण में चैतन्य दिखाई  देता है । कहीं -कहीं  चैतन्य सोया हुआ है उसकी अभिव्यक्ति पूर्ण रुप से नहीं हुई हैै तो  कहीं कहीं उसकी अभिव्यक्ति अधिक है । इतना  समझने मात्र से ही व्यक्ति अपने लक्ष्य पर पहुँच सकता है जो स्वात्मानंद प्रकाश है । आनंद के प्रकाश रुपी हमारी चेतना है । चैतन्य आत्मा ।

        समस्त साधनाएँ  क्रियाएें ,यज्ञ , हवन, होम, ध्यान-पुण्य चैतन्यता की वृध्दि के लिए ही  है । चेतना को बढा़ने के लिए है । चेतना को बढ़ाओ तो आत्म साक्षात्कार होने लगेगा कि  चैतन्य ही आत्मा है । चेतना को बढा़ओ  यह कहना भी उचित नहीं है, वस्तुत: चेतना  न बढ़ती है न घटती  है । चेतना तो सर्वत्र व्याप्त है , लेकिन उसके प्रति हमारा ज्ञान बढ़ता  है या  घटता है । उसकी अनुभूति बढ़ती है या घटती  है ।