निर्विचार होने की कला :
चीन की प्रसिद्ध कथा है कि एक बहुत बड़ा शिकारी था। उसने अपने सम्राट से कहा कि अब मैं चाहता हूं कि आप घोषणा कर दें कि मैं पूरे चीन का प्रथम शिकारी हूं। मुझसे बड़ा कोई धुनर्विद नहीं है। अगर कोई हो, तो मैं चुनौती लेने को तैयार हूं।
सम्राट भी जानता था कि उससे बड़ा कोई धनुर्विद नहीं है। घोषणा करवा दी गई, डुंडी पिटवा दी गई सारे साम्राज्य में कि अगर किसी को चुनौती लेनी हो, तो चुनौती ले ले। नहीं तो घोषणा तय हो जाएगी कि यह व्यक्ति राज्य का सबसे बड़ा धनुर्धर है।
एक बूढ़े फकीर ने आकर कहा कि भई, इसके पहले कि घोषणा करो, मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो चुनौती तो नहीं लेगा, उसको शायद तुम्हारी घोषणा पता भी नहीं चली, क्योंकि वह दूर पहाड़ों में रहता है। उसको पता ही नहीं चलेगा कि तुम्हारी डुंडी वगैरह पिटी। वहां तक कोई जाएगा भी नहीं। और वह अकेला एकांत में वर्षों से रहता है। और मैं लकड़हारा हूं और उस जंगल से लकड़ियां काटता था, जब जवान था। मैं जानता हूं कि उसके मुकाबले कोई धनुर्विद नहीं है। इसलिए इसके पहले कि घोषणा की जाए, इस धनुर्विद को कहो कि जाए, उस फलां-फलां बूढ़े को खोजे। अगर वह बूढ़ा जान जाए कि यह धनुर्विद है, तो ही समझना। नहीं तो यह कुछ भी नहीं है।
वह धनुर्विद गया उस बूढ़े की तलाश में। बड़ी मुश्किल से तो उस पहाड़ पर पहुंच पाया। एक गुफा में वह बूढ़ा था। बहुत वृद्ध था--कोई एक सौ बीस वर्ष उसकी उम्र होगी। कमर उसकी झुक गई थी बिलकुल। झुक कर चलता था। यह क्या धनुर्विद होगा! पर आ गया था इतनी दूर, तो उसने कहा कि महानुभाव, मैं फलां-फलां व्यक्ति की तलाश में आया हूं। निश्चय ही आप वह नहीं हो सकते, क्योंकि आपकी देह देखकर ही लगता है कि आप क्या धनुष उठा भी नहीं सकेंगे! धनुर्विद आप क्या होंगे! आप कमर सीधी कर नहीं सकते। आपकी कमर ही तो प्रत्यंचा हुई जा रही है! तो जरूर कोई और होगा। मगर आपसे पता चल जाए शायद। आप इस पहाड़ पर रहते हैं। जानते हैं आप यहां कोई फलां नाम का धनुर्विद?
वह बूढ़ा हंसा। उसने कहा कि वह व्यक्ति मैं ही हूं। और तुम चिंता न करो मेरी कमर की। और तुम यह भी चिंता मत करो कि मैं हाथ में धनुष ले सकता हूं या नहीं। धनुष जो लेते हैं, वे तो बच्चे हैं। मैं तो बिना धनुष हाथ में लिए, और शिकार करता हूं।
वह तो आदमी बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि मार डाला! बिना धनुष-बाण के कैसे शिकार? उसने कहा, आओ मेरे साथ।
वह बूढ़ा उसको लेकर चला। वह गया एक पहाड़ के किनारे जहां एक चट्टान दूर खड्ड में निकली थी, कि उस चट्टान से अगर कोई फिसल जाए, तो हजारों फीट का गङ्ढ था, उसका पता ही नहीं चलेगा। उसका कचूमर भी नहीं मिलेगा कहीं खोजे से! हड्डी-हड्डी चूरा-चूरा हो जाएगी। वह बूढ़ा चला उस चट्टान पर, और जाकर बिलकुल किनारे पर खड़ा हो गया। उसकी अंगुलियां चट्टान के बाहर झांक रही हैं पैर की। और कमर उसकी झुकी हुई! और उसने इससे कहा कि तू भी आ जा।
यह तो गिर पड़ा आदमी वहीं! यह तो उस चट्टान पर खड़ा हुआ, तो इसको चक्कर आने लगा। इसने नीचे जो गङ्ढा देखा, इसके हाथ-पैर कंपने लगे। और वह बूढ़ा अकंप वहां चट्टान पर सधा हुआ खड़ा है। आधे पैर बाहर झांक रहे हैं! अब गिरा, तब गिरा! इसने कहा कि महाराज, वापस लौट आओ! मुझे हत्या का भागीदार न बनाओ!
उसने कहा तू, फिक्र ही मत कर। तू कैसा धनुर्धर है! तुझे अभी मृत्यु का डर है? तो तू क्या खाक धनुर्धर है। और तू कितने पक्षी मार सकता है अपने धनुष से? देख ऊपर आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं।
उसने कहा, अभी मैं कहीं नहीं देख सकता। इस चट्टान पर इधर-उधर देखा; कि गए! इधर मैं धनुष भी नहीं उठा सकता। और निशाना वगैरह लगाना तो बात ही दूर है! मेरी प्रार्थना है कि कृपा करके वापस लौट आइए। यह तो गया भी नहीं उतनी दूर तक!
उस बूढ़े ने कहा कि देख। मैं न तो धनुष हाथ लेता हूं, न बाण; लेकिन यह पूरी पक्षियों की कतार मेरे देखने से नीचे गिर जाएगी। और उसने पक्षियों की तरफ देखा और पक्षी गिरने लगे। यह धनुर्विद उसके चरणों में गिर पड़ा और कहा कि मुझे यह कला सिखाओ। यह क्या माजरा है! तुमने देखा और पक्षी गिरने लगे! उसने कहा, इतना विचार काफी है। अगर निर्विचार होओ, तो इतना विचार काफी है। इतना कह देना कि गिर जा, बहुत है। पक्षी की क्या हैसियत कि भाग जाए! भाग कर जाएगा कहां?
वर्षों वह धुनर्विद उसके पास रहा। निर्विचार होने की कला सीखी। भूल ही गया धनुष-बाण। यहां धनुष-बाण का कोई काम ही न था। और जब निर्विचार हो गया, तो उसने धनुष-बाण तोड़ कर फेंक दिया। सम्राट से जा कर कहा कि बात ही छोड़ दो। जिस आदमी के पास मैं होकर आया हूं, उसको पार करना असंभव है। हालांकि थोड़ी-सी झलक मुझे मिली। बस, उतनी मिल गई, वह भी बहुत है। धनुष-बाण, मेरे गुरु ने कहा है, कि बच्चों का काम है। जब कोई सचमुच धनुर्धर हो जाता है, तो धनुष-बाण तोड़ देता है। और जब कोई सचमुच संगीतज्ञ हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है। फिर क्या वीणा पर संगीत उठाना, जब भीतर का संगीत उठे!
ओशो